गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012
अबतक जिन छद्मोँ का बोझ उठाये भूख और सम्बंधोँ के द्वन्द्व को जीनेँ की कोशिश किये जा रहा हूँ,कई बार मन मेँ आया उन्हेँ उतार फेकूँ,पर पचपन सालोँ की लम्बी सूनी साँझ मे अपूरितसपनोँ के द्वन्द्व भय से ऐसा नहीँ कर पा रहा हूँ।न जानेँ क्योँ लम्बी सूनी राहेँ सामनेँ बिछ जाती हैँ।उस छोर जलती कन्दील और कन्दील की पीली रोशनी के पीछे आसमान की ओर बाहेँफैलाये उड़नेँ की कोशिश करती अन्नू मेरी बिटिया मेरे घावोँ को देख विचलित न हो जाय बेटे की तरह।इसलिये छद्म अभी तक ओढ़े चला जा रहा हूँ। कभी कभी लगता है जिन पंकिल रसीली पगदंडियो पर माँ के कन्धोँ से उतर कर लोट जाता था सूरज की ओर एक गुब्बारा उछालनेँ की जिद मेँ।माँ की छडी से डरकर जिन पर सरपट भागता रहता था.वे अब मेरे सीनेँ पर साँप सी लोट रही हैँ।.कहीँ डँस न लेँ।इस नाते छद्म उतारने से डर जाता हूँ।
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Mamaji, Nice start of composing your thoughts online. This would remain on the net forever, so do post your thoughts on current issues in and around society as well.
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